मंगलवार, 13 जुलाई 2010

सोचता हूँ
लिख दूं
यूं ही
बेतरतीब बेरोकटोक उल-फिजूल
कि बिना प्रयास
दिए भावनओं को शब्द बिना
बन जाये कविता एक
और उनका हो जाये साक्षात्कार
एक कवि से ...
परन्तु
अचानक लेखनी विद्रोही हो जाती है
शब्द प्रतिशोध कि मुद्रा अपना लेते हैं
भावनाएं सुप्त हो जाती हैं
मष्तिस्क करता है आग्रह- कोमल सा
डगर को विकृत करने का ...
सुंदर सा उपवन
उपवन और  सुंदर
भला कोई मेल है!
तुम क्या जानो--- चाँद कि दाग उसका
सुंदर  कोन ?
जो भा ले मन को
मन!
सार्वजानिक संपत्ति तो नहीं!

साथ

तुम भी साथ छोड़ चले !
ऐसे में तो साथ रहते मेरे...
हंस कर बोला वों -नियति है ....
नहीं रहता पास लूटे-पिटे के
चल देता हूँ
फिर से बहने के लिए
किसी और कि आँखों से...
जब छोड़ गए मंझधार में
जिनके अजीज थे तुम
तो मैं क्यों रहूँ -पास तुम्हारे
गम के सिवाय है कुछ पास तुम्हारे...
कि मैं बना लूं घरोंदा
सूनी आँखों में तुम्हारी ....

नजदीकियाँ

विवशता ।
दूर इतना
कि नजदीक इतनी तुम ।
दीवारें  ...
लिखी तहरीरें पोत दी जाएँगी
अगले पोंगल पर।
पा लिया अस्तित्व
खोकर उसे जो छलिया था ।
चिर निद्रा से जगाकर बोले वों
देखो ...
खूबसूरत कितना है यह जहाँ !
चलो ना साथ मेरे
मंजिल तो है पर साथी नहीं ।
करीब मंजिल के पूछा उसने
तुम कोन !!! .... पीछा क्यों ?
अचंभित नहीं मैं ...
पहली बार तो नहीं...

रविवार, 11 जुलाई 2010
















पापा-मम्मी
















अप्रैल २००६ कि बात है जब आप आये थे ... कितना अच्छा लगता है ... कुछ लम्हे ....

दो रूपये




अजीब जीवन है मेरा...
मेरी जरूरतें -
मेरी बेटी कि फीस
और दो वक़्त कि रोटी ।
पूरी नहीं हो पाती कभी
समानांतर   चलती है... रेल कि पटरी कि तरह
कभी नहीं मिल पाती ।
इन्ही पटरिओं के बीच
तेजी से चल रहे मेरे हाथ
चुग रहें हैं जले -अधजले कोयले के टुकड़ों को
सुबह -सुबह अन्धेरें में ही आ गयी मैं आज
धुंध भी नहीं छटी है अभी
ठिठुर रहें हैं हाथ ठंड से
एङिओं में चुभ रहें है नुकीले कोयले
जैसे कि सूल चुभ रहीं हो ।
परन्तु आज बेटी कि फीस भरनी है
नाम काट देगा मास्टर नहीं टो
आज बहुत डर भी लग रहा है
कहीं पुलिसिया न आ जाये
आज देने को दो रुपये भी नहीं है मेरे पास
इसीलिए जल्दी -जल्दी भर रहीं हूँ
थैला ... थैला मेरा फटा हुआ थैला
उठी ही थी जाने को
कि वह आ जाता है डंडा लहराते हुए
और मेरी सांसे रूक जाती है
वह हाथ बढाता  है दो रुपयों के लिए
यही निश्चित दर  है
और जड़ हो जाती हूँ मैं
कल दे .....
पूरा भी नहीं कह पाती कि
साली .....
और मेरी पीठ पर एक कड़ा  प्रहार
और थैला छीनकर हवा में...
टुकड़े छितर कर इधर-उधर फेल जाते हैं
मेरे सपनो कि तरह
अब उसकी निगाहें मेरे फटे  ब्लाऊज़  के पीछे तक तेर जाती है
और में भाग जाती हूँ
थैले को भी छोड़कर ...
थैला तो फटा हुआ है
पर मेरी इज्जत ....

कुछ ज्ञान की बातें







काजू और आदि

बॉम्बे के कुछ पल







बॉम्बे की कुछ यादें...



हमारी बिल्डिंग के पीछे की और के कुछ खूबसूरत नज़ारे


जब हम लोनेवाला गए आदि और काजू


रविवार, 4 जुलाई 2010

भ्रूण हत्या

मात्र तीन दी का था मैं...
चाहता था छुपे रहना
अन्तःकरण में ।
क्योंकि  शक्तिहीन था मैं- एक शिशु कि तरह
डर था कहीं असामयिक मृत्यु को न प्राप्त हो जाऊं...
परन्तु,  हे ममत्व कि साक्षात्  देवी !
आशा न थी मुझे तुमसे ऐसी...
तुम्ही ने मुझे उखाड़ फेकने कि साजिश क़ी।
कैसी अभिव्यक्ति है यह ममता क़ी !
हाँ ,तुम्ही को संबोधित हूँ मैं - हे कोमलांगी !
मेरे जीवन प्रयास के बारे में तो सोचा होता!
किसी इमारत क़ी दीवार में उग आया नवजात पौधा था मैं।
कितना कठिन प्रयास था पाने को एक जीवन...
परन्तु तुमने ही मुझे नोच डाला
तुम्ही पर अर्पित था मैं,हे ! प्रेम क़ी साक्षात्  प्रतिमा...
क्यों नहीं परिपक्व होने दिया मुझे?
क्या प्रेम का फल भी कडवा होता है ?
यदि नहीं
तो पनपने देती मुझे हे विशाल हृदय नारी !
मात्र तीन दिन के भ्रूण को...

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

भ्रूण

न पनपता मैं
तो भी दुख़ होता तुम्हे
और पनपने पर भी
उदास हो तुम !
तुम्ही ने तो दिया था
आश्रय मुझे
अपने गर्भ में...
फिर मैं तो छिपा था
अनंत में
पाकर स्नेह तुम्हारा.
मेरा पनपना
अप्राकृतिक तो नहीं
क्या पता नहीं था
तुम्हे की
मैं हमेशा ही
नहीं रहूँगा
नन्हा सा शिशू
मेरा भी होगा विकास
पाकर निरंतर
निर्बाध प्रेम की छाया
और
मेरे विकास की प्रक्रिया में
कहाँ दरारें पड़ेगी
किसे चोट लगेगी
और कब
एक प्रेम के खँडहर पर
प्रेम की  आधारशिला  रखी जाएगी
कोन  नहीं जनता था मैं या तुम ?