सोचता हूँ
लिख दूं
यूं ही
बेतरतीब बेरोकटोक उल-फिजूल
कि बिना प्रयास
दिए भावनओं को शब्द बिना
बन जाये कविता एक
और उनका हो जाये साक्षात्कार
एक कवि से ...
परन्तु
अचानक लेखनी विद्रोही हो जाती है
शब्द प्रतिशोध कि मुद्रा अपना लेते हैं
डगर को विकृत करने का ...
सुंदर सा उपवन
तुम क्या जानो--- चाँद कि दाग उसका
सुंदर कोन ?
जो भा ले मन को
मन!
सार्वजानिक संपत्ति तो नहीं!
लिख दूं
यूं ही
बेतरतीब बेरोकटोक उल-फिजूल
कि बिना प्रयास
दिए भावनओं को शब्द बिना
बन जाये कविता एक
और उनका हो जाये साक्षात्कार
एक कवि से ...
परन्तु
अचानक लेखनी विद्रोही हो जाती है
शब्द प्रतिशोध कि मुद्रा अपना लेते हैं
भावनाएं सुप्त हो जाती हैं
मष्तिस्क करता है आग्रह- कोमल साडगर को विकृत करने का ...
सुंदर सा उपवन
उपवन और सुंदर
भला कोई मेल है!तुम क्या जानो--- चाँद कि दाग उसका
सुंदर कोन ?
जो भा ले मन को
मन!
सार्वजानिक संपत्ति तो नहीं!