मंगलवार, 13 जुलाई 2010

नजदीकियाँ

विवशता ।
दूर इतना
कि नजदीक इतनी तुम ।
दीवारें  ...
लिखी तहरीरें पोत दी जाएँगी
अगले पोंगल पर।
पा लिया अस्तित्व
खोकर उसे जो छलिया था ।
चिर निद्रा से जगाकर बोले वों
देखो ...
खूबसूरत कितना है यह जहाँ !
चलो ना साथ मेरे
मंजिल तो है पर साथी नहीं ।
करीब मंजिल के पूछा उसने
तुम कोन !!! .... पीछा क्यों ?
अचंभित नहीं मैं ...
पहली बार तो नहीं...

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