गुरुवार, 1 जुलाई 2010

भ्रूण

न पनपता मैं
तो भी दुख़ होता तुम्हे
और पनपने पर भी
उदास हो तुम !
तुम्ही ने तो दिया था
आश्रय मुझे
अपने गर्भ में...
फिर मैं तो छिपा था
अनंत में
पाकर स्नेह तुम्हारा.
मेरा पनपना
अप्राकृतिक तो नहीं
क्या पता नहीं था
तुम्हे की
मैं हमेशा ही
नहीं रहूँगा
नन्हा सा शिशू
मेरा भी होगा विकास
पाकर निरंतर
निर्बाध प्रेम की छाया
और
मेरे विकास की प्रक्रिया में
कहाँ दरारें पड़ेगी
किसे चोट लगेगी
और कब
एक प्रेम के खँडहर पर
प्रेम की  आधारशिला  रखी जाएगी
कोन  नहीं जनता था मैं या तुम ?

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