रविवार, 11 जुलाई 2010

दो रूपये




अजीब जीवन है मेरा...
मेरी जरूरतें -
मेरी बेटी कि फीस
और दो वक़्त कि रोटी ।
पूरी नहीं हो पाती कभी
समानांतर   चलती है... रेल कि पटरी कि तरह
कभी नहीं मिल पाती ।
इन्ही पटरिओं के बीच
तेजी से चल रहे मेरे हाथ
चुग रहें हैं जले -अधजले कोयले के टुकड़ों को
सुबह -सुबह अन्धेरें में ही आ गयी मैं आज
धुंध भी नहीं छटी है अभी
ठिठुर रहें हैं हाथ ठंड से
एङिओं में चुभ रहें है नुकीले कोयले
जैसे कि सूल चुभ रहीं हो ।
परन्तु आज बेटी कि फीस भरनी है
नाम काट देगा मास्टर नहीं टो
आज बहुत डर भी लग रहा है
कहीं पुलिसिया न आ जाये
आज देने को दो रुपये भी नहीं है मेरे पास
इसीलिए जल्दी -जल्दी भर रहीं हूँ
थैला ... थैला मेरा फटा हुआ थैला
उठी ही थी जाने को
कि वह आ जाता है डंडा लहराते हुए
और मेरी सांसे रूक जाती है
वह हाथ बढाता  है दो रुपयों के लिए
यही निश्चित दर  है
और जड़ हो जाती हूँ मैं
कल दे .....
पूरा भी नहीं कह पाती कि
साली .....
और मेरी पीठ पर एक कड़ा  प्रहार
और थैला छीनकर हवा में...
टुकड़े छितर कर इधर-उधर फेल जाते हैं
मेरे सपनो कि तरह
अब उसकी निगाहें मेरे फटे  ब्लाऊज़  के पीछे तक तेर जाती है
और में भाग जाती हूँ
थैले को भी छोड़कर ...
थैला तो फटा हुआ है
पर मेरी इज्जत ....

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